अंजान राह

अंजान राह

आज फिर निकल पड़ा हूं, यू ही एक अंजान राह पर,

ना रास्तों का पता, ना मंजिल का ठिकाना।

निकल पड़ते है ये कदम, मंजिल की तलाश में,

निकल पड़ते है ये कदम, अंजान मंजिल की तलाश में,

हर मंजिल से अपनी होने की उम्मीद में,

निकल पड़ा ही यू ही, एक अंजान सफ़र पे।

ना जाने कहां जा कर, आज के सफ़र का अंत होगा,

ना जाने कौन सी मंजिल मिलेगी, इस सफ़र में,

चलता रहता हूं यू ही, एक अनजानी तलाश में।

आज फिर निकल पड़ा हूं, यू ही एक अंजान राह पर,

ना रास्तों का पता, ना मंजिल का ठिकाना।

हर कोई है अंजान इस राह पर, हर कोई लगता हैं अपना,

ना जाने कौन सी मंजिल हमें अपना बनाएगी,

ना जाने कौन सी मंजिल हमारा इंतजार कर रही हैं।

आज फिर निकल पड़ा हूं, यू ही एक अंजान राह पर,

ना रास्तों का पता, ना मंजिल का ठिकाना।


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